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April 5, 2010

मृगतृष्णा

( मेरी अपनी कई सालो पहले लिखी एक और कविता जो जीवन की सच्चाई को बयां करती है। )

ये दुनिया नहीं मेला है,
मुसाफिरों का झमेला है,
यहाँ न भाई न बहन न माता पिता,
हर आदमी बस अकेला ही अकेला है।

सबकी आँखों में एक सपना है,
ये, वो और वो भी अपना है,
परन्तु मरने के बाद
सब साथ छोड़ देते है हमेशा के लिए
ये जीवन एक मृगतृष्णा है।

4 comments:

संजय भास्‍कर said...

सबकी आँखों में एक सपना है,
ये, वो और वो भी अपना है,
परन्तु मरने के बाद
सब साथ छोड़ देते है हमेशा के लिए
ये जीवन एक मृगतृष्णा है।

खासकर इन पंक्तियों ने रचना को एक अलग ही ऊँचाइयों पर पहुंचा दिया है शब्द नहीं हैं इनकी तारीफ के लिए मेरे पास...बहुत सुन्दर..

रविंद्र "रवी" said...

संजयजी आपने हमारी कविताये पढ उनकी दिल से तारीफ की, हमारे दिलोदिमाग में बहारे खील उठी. आपका बहुत बहुत धन्यवाद.

रावेंद्रकुमार रवि said...

रवि जी,
बिल्कुल सही कह रहे हैं!

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मेरे मन को भाई : ख़ुशियों की बरसात!
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संपादक : सरस पायस

रविंद्र "रवी" said...

धन्यवाद रावेन्द्रजी.