( मेरी अपनी कई सालो पहले लिखी एक और कविता जो जीवन की सच्चाई को बयां करती है। )
ये दुनिया नहीं मेला है,
मुसाफिरों का झमेला है,
यहाँ न भाई न बहन न माता पिता,
हर आदमी बस अकेला ही अकेला है।
सबकी आँखों में एक सपना है,
ये, वो और वो भी अपना है,
परन्तु मरने के बाद
सब साथ छोड़ देते है हमेशा के लिए
ये जीवन एक मृगतृष्णा है।
4 comments:
सबकी आँखों में एक सपना है,
ये, वो और वो भी अपना है,
परन्तु मरने के बाद
सब साथ छोड़ देते है हमेशा के लिए
ये जीवन एक मृगतृष्णा है।
खासकर इन पंक्तियों ने रचना को एक अलग ही ऊँचाइयों पर पहुंचा दिया है शब्द नहीं हैं इनकी तारीफ के लिए मेरे पास...बहुत सुन्दर..
संजयजी आपने हमारी कविताये पढ उनकी दिल से तारीफ की, हमारे दिलोदिमाग में बहारे खील उठी. आपका बहुत बहुत धन्यवाद.
रवि जी,
बिल्कुल सही कह रहे हैं!
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मेरे मन को भाई : ख़ुशियों की बरसात!
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संपादक : सरस पायस
धन्यवाद रावेन्द्रजी.
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