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November 28, 2009

अहम्...

(१२-२-१९८० को लिखी हुई एक कविता यहाँ आपके खिदमत में पेश कर रहा हु। )
अहम् न करो हे मानव,
न बनो तुम दानव,
अहम्,
तो दानव का प्रतिरूप है।
हे मानव,
तू अहम् करता है
इन कौडियों के सहारे
आँखे तरेरता है
क्यो अपने करेक्टर का नाश करता है
अरे
ये दौलत तो चार दिन की है
हाथ का मैल है ये तो
ये वो चीज है
जो आज यहाँ
कल वहा रहती है
आज तू धनवान है
कल निर्धन हो जाएगा
अरे
एक दिन एक काला कौवा आएगा
इन सोने की कौडियों को
मोती समझकर
और ख़ुद को हंस मानकर
निगल जाएगा
और तू देखता ही रह जाएगा
हो जाएगा
मोहताज तू कौड़ी कौड़ी के लिए
न पूछेगा तेरा भाई
न पूछेगा बेटा तुझे
तू एक जून रोटी के लिए
तरस जाएगा।
हे मानव अहम् न कर तू
न कर अहम्।

2 comments:

संजय भास्‍कर said...

हर शब्‍द में गहराई, बहुत ही बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

रविंद्र "रवी" said...

बहुत बहुत शुक्रिया!!!