दफना दिया है मैंने दुखो को
मुर्दा समझकर,
सुखा दिए है आँसू मैंने ग्रीष्म समझकर,
आख़िर इस बहुमूल्य मानव जीवन को
व्यतीत भी तो करना है।
एक कांटा चुभा था मेरे नाजुक दिल में,
बहुत दर्द हुआ था तब
अब मैंने उसे निकल फेंका है।
दूर बहुत दूर
अब वह मेरे दिल में कभी न चुभेगा, कभी नही।
यह मई अच्छी तरह जानता हूँ,
क्योकि अब मैंने फूंक फूंक कर कदम
रखना सिख लिया है।
अब तो घाव भी भर चुका है।
हाँ मैंने दुखों को दफना दिया है।
( यह कविता मैंने १९/०५/१९८० को लिखी थी।)
2 comments:
हर रंग को आपने बहुत ही सुन्दर शब्दों में पिरोया है, बेहतरीन प्रस्तुति ।
आपका तहेदिल से शुक्रिया संजयजी.
Post a Comment