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January 7, 2010

महबूबा

अगर तुम न आती
मेरी महबूबा
मेरी जिंदगी में
तो मेरा अस्तित्व क्या होता?
बंजर जमीं में एक सूखे पेड़
की भाँती खड़े होते,
अकेले ही अकेले
और जिंदगी के सिलसिले
यूँही चले होते सालों साल,
कभी न भरने वाले जख्म
गिले होते सालों साल।

3 comments:

संजय भास्‍कर said...

और जिंदगी के सिलसिले
यूँही चले होते सालों साल,
कभी न भरने वाले जख्म
गिले होते सालों साल।

इन पंक्तियों ने दिल छू लिया... बहुत सुंदर ....रचना....

संजय भास्‍कर said...

हर शब्‍द में गहराई, बहुत ही बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

रविंद्र "रवी" said...

धन्यवाद संजय जी! बहुत बहुत धन्यवाद दुबारा पाधाराने के लिये और आपकी इस दिल छु लेणे वाली प्रतिक्रिया के लिये!!!!