शायद,
रोज रात चाँद आँसमाँ से तुम्हे देखता है,
और
तुम्हारी खुबसुरती की रोशनी से अपनी आँखे चुरा लेता है,
शायद,
उसे डर लगता है
कही दुनियावाले तुम्हे ही चाँद न समझ बैठे
शायद
इसी डर से वो हौले हौले छुपता है
और
एक दिन पुरी तरह लुप्त हो जाता है
शायद
उसी रात को अमावस की रात कहते है.
और फिर
जब सभी तारें आँसमाँ में
एक होकर उसे समझाते है
वो हौले हौले झाँक झाँक कर तुम्हे निहारता है
और
जब उसका डर दुर हो जाता है
वह पुरी तरह आँसमाँ में छा जाता है
शायद उसी रात को
लोग पुनम की रात कहते है.
14 comments:
कुछ तो है इस कविता में, जो मन को छू गयी।
Maaf kijiyga kai dino bahar hone ke kaaran blog par nahi aa skaa
शायद ..ऐसा ही होता होगा....पर हर १४ दिन बाद उसे डर लगता है और फिर १४ दिन बाद ही उसका डर भाग जाता है....
कल्पना को अच्छे शब्द दिए हैं
शायद,
रोज रात चाँद आँसमाँ से तुम्हे देखता है,
और
तुम्हारी खुबसुरती की रोशनी से अपनी आँखे चुरा लेता है,
शायद,
उसे डर लगता है
कही दुनियावाले तुम्हे ही चाँद न समझ बैठे
..khoobsurat khayal.. laajab rachna
आपकी प्रतिक्रिया भी इसी तऱ्ह मन को छु जाती है. धन्यवाद!
धन्यवाद संगीताजी! धन्यवाद कविताजी !
बेहतरीन रचना ....
Thanks Deveshji!!!
उम्दा ...
लाजवाब प्रस्तुती ||
एक शायर दाद दे इससे बडी बात और क्या हो सकती है! शायर अशोकजी आपका तहेदिल्से शुक्रिया!
khoobsurat nazm....
shukriya !!
khoobsurat nazm...
shukriya !!!
मृदुलाजी शुक्रिया!
पुनमजी, आप हमारे यहाँ कुछ पल आये और अपने हातो से समीक्षा दर्ज कर हमें सराहा इसके लिए आपका शुक्रिया.
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