अब तो थक जाता हुँ
थोडी दूर चलने से,
मंज़िल नजर आती है
मगर फासला तय नहीं कर पाता।१।
काफिले नजर नहीं आते ,
मंजिलें नजर नहीं आती
उम्र ढल चुकी अब तो,
और दूर चला नहीं जाता।२।
बस अब और नही.
जिंदगी की राह गुजर जाये
चाहे अंधेरे हो या काँटे
इस राह में
नजर तो कुछ नही आना।३।
9 comments:
आपकी लिखी रचना "साप्ताहिक मुखरित मौन में" शनिवार 20 अक्टूबर 2018 को साझा की गई है......... https://mannkepaankhi.blogspot.com/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
बहुत बहुत धन्यवाद.
संवेदनाओं की लहर में गोते लगाते बेहतरीन रचना ,पहली बार आपके ब्लॉग पर आना हुआ बड़ा अच्छा लगा रचनाएँ पढ़कर ,कभी वक्त मिले तो मेरे ब्लॉग https://shayarikhanidilse.blogspot.com/
पर भी आइएगा ...
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बेहद गहरे भाव सर। लाज़वाब।
धन्यवाद। आते रहियेगा.
धन्यवाद जी. आपके ब्लॉग को जरूर पढेंगे.
यह कविता अलग है, मुझे इसमे जसा लगा कि आपने स्वयं को अलग कर किसी और के दृष्टिकोण से भावनाओं को चित्रित किया है।
धन्यवाद सर. आपने सही फरमाया। ये किसी और के नजरिये लिखी है।
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