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October 18, 2018

ढलती उम्र


अब तो थक जाता हुँ
थोडी दूर चलने से,
मंज़िल नजर आती है
मगर फासला तय नहीं कर पाता।१।

काफिले नजर नहीं आते ,
मंजिलें नजर नहीं आती
उम्र ढल चुकी अब तो,
और दूर चला नहीं जाता।२।

बस अब और नही.
जिंदगी की राह गुजर जाये
चाहे अंधेरे हो या काँटे
इस राह में
नजर तो कुछ नही आना।३।

9 comments:

yashoda Agrawal said...

आपकी लिखी रचना "साप्ताहिक मुखरित मौन में" शनिवार 20 अक्टूबर 2018 को साझा की गई है......... https://mannkepaankhi.blogspot.com/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

रविंद्र "रवी" said...

बहुत बहुत धन्यवाद.

Ankit choudhary said...

संवेदनाओं की लहर में गोते लगाते बेहतरीन रचना ,पहली बार आपके ब्लॉग पर आना हुआ बड़ा अच्छा लगा रचनाएँ पढ़कर ,कभी वक्त मिले तो मेरे ब्लॉग https://shayarikhanidilse.blogspot.com/
पर भी आइएगा ...

Ankit choudhary said...

संवेदनाओं की लहर में गोते लगाते बेहतरीन रचना ,पहली बार आपके ब्लॉग पर आना हुआ बड़ा अच्छा लगा रचनाएँ पढ़कर ,कभी वक्त मिले तो मेरे ब्लॉग https://shayarikhanidilse.blogspot.com/
पर भी आइएगा ...

अमित निश्छल said...

बेहद गहरे भाव सर। लाज़वाब।

रविंद्र "रवी" said...

धन्यवाद। आते रहियेगा.

रविंद्र "रवी" said...

धन्यवाद जी. आपके ब्लॉग को जरूर पढेंगे.

शब्द निर्झर said...

यह कविता अलग है, मुझे इसमे जसा लगा कि आपने स्वयं को अलग कर किसी और के दृष्टिकोण से भावनाओं को चित्रित किया है।

रविंद्र "रवी" said...

धन्यवाद सर. आपने सही फरमाया। ये किसी और के नजरिये लिखी है।